शनिवार, 6 नवंबर 2010

indian political cartoon

दीपावली, आर्य चाणक्य और वर्तमान राजनेता


मित्रों, आप सभी को प्रकाश-पर्व दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ! दीपावली का उल्लेख हो और दीपों की बात न हो, ये संभव नहीं है। अमावस की रात में आने वाली दीपावली को ये छोटे-छोटे दीप ही रोशन करते हैं और हमें प्रेरणा देते हैं कि जिस तरह एक छोटा-सा दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, उसी तरह हमारा एक छोटा प्रयास भी एक दिन कोई बड़ा परिवर्तन ला सकता है। बस! मन में उत्साह और अपने संकल्प की पूर्ति के लिये लगन होनी चाहिये।

ऐसी ही लगन आर्य चाणक्य के मन में थी और उन्होंने अपनी लगन से उसे पूरा करके दिखाया। अपने अदम्य उत्साह के बल पर उस एक अकेले व्यक्ति ने कितने सारे महान कार्य पूरे कर दिये। सिकंदर जैसे आक्रमणकारी को अपनी विशाल सेना के होते हुए भी सैनिकों सहित भारत से बाहर खदेड़ दिया। एक छोटे-से बालक को अपने योग्य-मार्गदर्शन में सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। राजा धनानन्द की मज़बूत सत्ता को उखाड़कर सभी छोटे-बड़े राजाओं को मौर्य साम्राज्य के अधीन ले आए और पूरे भारत को फिर एक बार उसी तरह अखण्ड बना दिया, जैसा वह श्रीराम और श्रीकृष्ण के काल में था।

चाणक्य केवल एक विद्वान ब्राह्मण और अर्थशास्त्री ही नहीं, वरन् एक देशभक्त राजनीतिज्ञ भी थे। दीपावली के इस अवसर पर दीपों की बात निकली, तो मुझे चाणक्य के जीवन का एक प्रसंग आ रहा है। यूनान का एक दूत मौर्य साम्राज्य के मार्गदर्शक आर्य चाणक्य से मिलने के लिये गया। इतने बड़े साम्राज्य के निर्माता चाणक्य पाटलिपुत्र में गंगा के किनारे एक छोटी-सी कुटिय में निवास करते थे। रात का समय था। दूत ने देखा कि एक छोटा-सा दीप जल रहा है और उसके प्रकाश में कौटिल्य अपने लेखन में व्यस्त हैं। इस दूत के आने पर उन्होंने उसका स्वागत किया और जलता हुआ वह दीप बुझाकर एक दूसरा दीप जला दिया। दोनों में बात-चीत होने लगे। दूत ने कारण पूछा कि आखिर आपने पहला दीप बुझाकर दूसरा क्यों जलाया है? तब चाणक्य ने उत्तर दिया कि वह जो दीप है, वह मुझे शासकीय कार्य के लिये शासन की ओर से मिला है। उसका उपयोग मैं अपने व्यक्तिगत कार्यों के लिये कैसे कर सकता हूँ? ये जो दूसरा दीप है, ये मेरा है। जब आप आए, तो मैं शासकीय कार्य कर रहा था। इसलिये पहला वाला दीप जल रहा था। लेकिन आपसे जो मेरा वार्तालाप चल रहा है, ये मेरा निजी कार्य है। इसलिये मैंने पहला वाला दीप बुझाकर दूसरा वाला जला दिया!

कथा भले ही छोटी-सी हो, लेकिन इसका मर्म बहुत गहरा है। हम हमेशा महापुरुषों की ऐसी अनेक कथाएँ और प्रसंग सुनते हैं, लेकिन जब हमारे सामने कोई ऐसा अवसर आता है, तो क्या हम स्वयं ऐसा व्यवहार करते हैं? हम इस बात पर गर्व करते हैं कि अतीत में भारत विश्व का सबसे शक्तिशाली, वैभव-संपन्न और समृद्ध राष्ट्र था, लेकिन क्या हम इस बात पर विचार करते हैं कि वर्तमान भारत इस दुःस्थिति में क्यों है? हम इस बात के लिये केवल विदेशी हमलावरों को दोष देकर अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ सकते। विदेशी आक्रमणों की एक हजार वर्षों की श्रृँखला 1947 में टूट गई। लेकिन हमारे कुछ अदूरदर्शी और स्वार्थी राजनेताओं और शासकों की कृपा से देश आज भी असुरक्षित बना हुआ है। हम लगातार आंतरिक और बाह्य आक्रमणों से जूझ रहे हैं। क्या हमारे राजनेता आर्य चाणक्य से कोई सीख लेंगे?

आर्य चाणक्य जैसे महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अतीत में भारत विश्व-गुरु क्यों कहलाता था। अपने निजी कार्य के लिये शासकीय धन की एक पाई का भी प्रयोग न करने वाले उस महात्मा और शासकीय धन को अपने घर की संपत्ति समझने वाले वर्तमान राजनेताओं के बीच कोई तुलना भी नहीं की जा सकती। इनमें ज़मीन-आसमान का अंतर है और यही कारण है कि तत्कालीन बिश्व-गुरु भारत और वर्तमान संकट-ग्रस्त भारत में भी इतना अंतर है।

यदि हमें भारत को पुनः विश्व-गुरु बनाना है, तो फिर एक बार उसी मार्ग को अपनाना पड़ेगा, जो श्रीराम, श्रीकृष्ण और आर्य चाणक्य ने हमें दिखाया है। हम अमरीका, चीन, यूरोप, रूस या किसी भी अन्य देश की नकल करके कभी आगे बढ़ सकते। जब तक हम नकल करते रहेंगे, तब तक हमेशा किसी न किसी से पीछे ही रहेंगे। यदि हम भारत को इसका खोया हुआ वैभव और स्थान पुनः दिलाना चाहते हैं, तो इसके लिये दो बातों को अपनाना अनिवार्य है- निःस्वार्थ देशभक्ति और अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन। ये दो ऐसे तत्व हैं, जिन्हें आप, मैं और देश का हर सामान्य नागरिक भी सहजता से अपना सकता है। हमें याद रखना चाहिये कि परिवर्तन तभी हो सकता है, जब समाज जागृत हो और समाज जागृत तभी होगा जब इसका प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्य का ईमानदारी और निष्ठा से पालन करे।
आइये, इस दीपावली पर एक दीप अपने राष्ट्र के नाम जलाएँ और ये संकल्प लें कि हम राष्ट्र-निर्माण में हरसंभव अपना योगदान देंगे। हर परिवर्तन अब हमें ही करना है क्योंकि राजनेताओं और राजनीति से तो अब कोई आशा करना भी शायद व्यर्थ है…शुभ दीपावली!!

सोमवार, 27 सितंबर 2010

क्या आपने भगत सिंह का नाम सुना है?

आज उनकी जयंती है। हम में से बहुत लोग भगत सिंह को अपना आदर्श बताते हैं और देशभक्ति की बात आते ही उनके प्रति अपनी श्रद्धा और आदर व्यक्त करने लगते हैं (ये बात अलग है कि ऐसा अक्सर हम अपने ही देशवासियों से बहस करते समय करते हैं)।

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को हुआ था और 23 मार्च 1931 को उन्हें फाँसी दे दी गई। हममें से प्रत्येक सदस्य को कम से कम ये दो तिथियाँ तो याद होनी ही चाहिये।

अगर सचमुच ऐसे महान लोग हमारे आदर्श हैं, तो इससे अच्छी बात और कोई हो नहीं सकती। लेकिन क्या हमारे पास इतनी फुर्सत भी है कि हम उनकी जयंती और पुण्यतिथि जैसे अवसरों पर उन्हें याद कर लें? जिन्हें हम अपना आदर्श बताते नहीं थकते, यदि हमें ऐसे महापुरुषों की जन्मतिथि भी नहीं मालूम, या मालूम होते भी हमारे पास उन्हें याद करने की फुर्सत नहीं है, तो फिर हमें उनका नाम भी लेने का क्या हक है?

आइये उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करें। आइये उन्हें हम सभी नमन करे। आइये आपस में लड़ते, उलझते रहने की बजाय एक-जुट और संगठित होकर देश और समाज की चुनौतियों का सामना करने की शपथ लें।

(चित्र का स्त्रोत: हिन्दी विकीपीडिया-- www.hi.wikipedia.org)

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

25 सितंबर: एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे।
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। उनके पिताजी एक प्रसिध्द ज्योतिषी थे। ऊन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का एक महान शिक्षा-शास्त्री एवं विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनेता बनेगा लेकिन वह अविवाहित रहेगा। उनकी माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं।

3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये । पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई का देहान्त हो गया। बाद में वे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमाह 10 रुपये की छात्रवृत्ति दी।

उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग शिक्षा प्राप्त की। बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे। अत: कालेज की पढ़ाई के बाद उन्होंने राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनकर अपना पूरा जीवन देश को समर्पित करने का निश्चय किया और एकनिष्ठ भाव से अपने संगठन का कार्य करने लगे। उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की।
सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक (संघ प्रमुख) श्री गोलवलकर जी से मदद मांगी।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य ईकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। वे उसके मंत्री बनाए गए। पंडित दीनदयालजी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डा0 मुकर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। दो वर्ष बाद सन्‌ १९५३ ई. में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की।

पंडित दीनदयालजी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयालजी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। ११ फरवरी, १९६८ की रात में रेलयात्रा के दौरान उनकी हत्या कर दी गई।

(स्रोत-
1. हिंदी विकीपीडिया-www.hi.wikipedia.org
2. http://www.lkadvani.in/hin/content/view/475/285/)

24 सितंबर: मैडम कामा की जयंती…क्या हमें याद है?


श्रीमती भीखाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा) (24 सितंबर 1861-13 अगस्त 1936) जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में तिरंगा फहराने के लिए सुविख्यात हैं। उस समय तिरंगा वैसा नहीं था, जैसा आज है। 
24 सितंबर, 1861 को बंबई में जन्मी भीखाजी कामा स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी अत्यंत कर्मठ महिला थी। धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवनवाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। श्रीमती कामा का बहुत बड़ा योगदान साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था।

वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचार-पत्र ‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ में प्रकट करती थीं। श्रीमती कामा की लड़ाई दुनिया-भर के साम्रज्यवाद के विरुद्ध थी। वह भारत के स्वाधीनता आंदोलन के महत्त्व को खूब समझती थीं, जिसका लक्ष्य संपूर्ण पृथ्वी से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त करना था। उनके सहयोगीउन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’
मानते थे; जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात् महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे। यूरोप के समाजवादी समुदाय में श्रीमती कामा का पर्याप्त प्रभाव था। यह उस समय स्पष्ट हुआ जब उन्होंने यूरोपीय पत्रकारों को अपने देश-भक्तों के बचाव के लिए आमंत्रित किया।

वह ‘भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन’ के नाम से विख्यात थीं। फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया। यह इस तथ्य की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी कि श्रीमती कामा का यूरोप के राष्ट्रीय तथा लोकतांत्रिक समाज में विशिष्ट स्थान था।

(स्रोत: हिन्दी विकिपीडिया-www.hi.wikipedia.org)