पण्डित दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे।
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। उनके पिताजी एक प्रसिध्द ज्योतिषी थे। ऊन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का एक महान शिक्षा-शास्त्री एवं विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनेता बनेगा लेकिन वह अविवाहित रहेगा। उनकी माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं।
3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये । पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई का देहान्त हो गया। बाद में वे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमाह 10 रुपये की छात्रवृत्ति दी।
उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग शिक्षा प्राप्त की। बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे। अत: कालेज की पढ़ाई के बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनकर अपना पूरा जीवन देश को समर्पित करने का निश्चय किया और एकनिष्ठ भाव से अपने संगठन का कार्य करने लगे। उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की।
सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक (संघ प्रमुख) श्री गोलवलकर जी से मदद मांगी।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य ईकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। वे उसके मंत्री बनाए गए। पंडित दीनदयालजी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डा0 मुकर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। दो वर्ष बाद सन् १९५३ ई. में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की।
पंडित दीनदयालजी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयालजी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। ११ फरवरी, १९६८ की रात में रेलयात्रा के दौरान उनकी हत्या कर दी गई।
(स्रोत-
1. हिंदी विकीपीडिया-www.hi.wikipedia.org
2. http://www.lkadvani.in/hin/content/view/475/285/)
1 टिप्पणी:
बहुत ही धन्यवाद इस पोस्ट के लिए भी........ दीनदयाल जी जैसे सब हो जाएं या फिर उनके बताए मार्ग पर सब राजनेता चलने लगें तो राजनीति फिर से सम्मान पा जाएगी।
एक टिप्पणी भेजें